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ओश की एक बूँद….

  • Alok 
alok verma

ओश की एक बूँद जैसे सूखे दिन के ताप से
जम गए सब आंसू मेरे यु ही अपने आप से
जो पड़ा है वज्र मुझपे तो मै गम को क्यों सहु
रोते होंगे दुनिया वाले मै भी क्यों रोता रहू
देखा मैंने काफी जीवन बात इतनी साफ़ है
जो भी पाना जो भी खोना, करना अपने आप है
बढ़ गए जो सारे आगे, तो मै क्यों पीछे रहू
दे तस्सली दिल को अपने आँखे क्यों सीचे रहू
जो मै जाऊ हार फिर भी सोचु कैसे हारा मै
कर न पाऊ एक पल भी हार को गवारा मै
फिर मै दौडू और बल से जीत के दिखलाऊंगा
क्या बना है लख्श्य ऐसा, जिसको मै न पाउँगा
मुह छुपा के सोने वालो में न मेरा नाम हो
काम अपना करते जाना बस यह मेरा काम हो
मोह इतना बाँट पाऊं, दिल को सबके जीत लू
दे सकू मै सबको गर्मी, उसके बदले शीत लू
जो मरू मै लोग बोले, क्या अनर्थ हो गया
ऐसा लगता है की दिल का कोई हिस्सा को गया
जो करू मै सत्य ये सब तब ही मेरा अर्थ है
वर्ना रहना इस जाहाँ में काम काफी व्यर्थ है।

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