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Darakhth

alok verma

ज़न्नत और कयामत के बीच, अब बस कुछ दरख्त खड़े है
वोह हमसे बड़े या हम उनसे बड़े है…

हमे आशिया देने को, कितने गुलशन तबाह हुए
हमारी किश्तिय खेने को, कितने घर कुरबा हुए
“होली”, “लोहड़ी” के नाम पे, कितने सपनो को राख किया
खेती के लालच में, पुरे जंगल को खाक किया

आज माज़रा यह है की, सांसो के भी लाले पड़े है
वोह हमसे बड़े या हम उनसे बड़े है…

दरख्तों में भी जान है, इसमें कोई शक नहीं
गर हम सब बीज नहीं बोते, तो काटने का भी हक नहीं
अब भी यह चीख नहीं सुनी, तो सब इस कत्ल का गुनाह लेंगे
अपने लापरवाही की बहुत बड़ी कीमत देंगे।

न जाने ज़मी के ज़हन में और कितने खंज़र जड़े है
वोह हमसे बड़े या हम उनसे बड़े है… .

2 thoughts on “Darakhth”

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